धर्मसभा मंच: मिशन के नायक के रूप में ईश प्रजा
जेसुइट जेनरल मुख्यालय में आयोजित एक ईशशास्त्रीय-प्रेरिताई मंच में, प्रतिभागियों ने आशा व्यक्त की कि भविष्य के धर्मसभा निकाय स्थानीय कलीसियाओं के व्यवसायों, दक्षताओं और विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए पूरे कलीसियाई निकाय का प्रतिनिधित्व करेंगे।
"ईश प्रजा कभी भी केवल बपतिस्मा प्राप्त लोगों का समूह नहीं होता; बल्कि, यह कलीसिया का 'हम' है, धर्मसभा और मिशन का सामुदायिक और ऐतिहासिक विषय है": धर्मसभा के इंस्ट्रुमेंतुम लेबोरिस से यह उद्धरण "मिशन के विषय के रूप में ईश प्रजा" फोरम के लिए प्रारंभिक बिंदु था, जो 9 अक्टूबर की दोपहर को रोम में येसु संघियों के जनरल मुख्यालय में सम्पन्न हुआ।
चर्चा का संचालन ऑस्ट्रिया के लिंज़ काथलिक विश्वविद्यालय के ईशशास्त्र संकाय में प्रेरितिक ईशशास्त्र की प्रोफेसर और रोमानिया के क्लुज के बेब्स-बोल्याई विश्वविद्यालय के संस्कृति-धर्म-समाज डॉक्टरेट स्कूल की सदस्य क्लारा ए. सिस्ज़ार ने किया।
आकर्षण के द्वारा मिशन, स्वतंत्रता एवं बिना बहिष्कार के
थॉमस सोडिंग के पास ईशशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री है, और वे रुहर-यूनिवर्सिटी बोचुम कीथलिक ईशशास्त्रीय संकय में न्यू टेस्टामेंट पढ़ाते हैं। वे 2004-2014 तक अंतर्राष्ट्रीय ईशशास्त्र आयोग के सदस्य थे और वर्तमान में, जर्मन धर्माध्यक्षीय सम्मलेन के विश्वास आयोग के सलाहकार होने के अलावा, वे जर्मन काथलिकों की केंद्रीय समिति और जर्मनी में काथलिक कलीसिया के धर्मसभा मार्ग के उपाध्यक्ष हैं।
अपने सम्बोधन में डॉ. सोडिंग ने व्याख्यात्मक और ख्रीस्तीय एकता पर बहुत सशक्त दृष्टिकोण के साथ, कहा कि मिशन कलीसिया का क्षितिज है।
उन्होंने कहा कि येसु के शिष्यों का कार्य लोगों के विश्वास पर नियंत्रण करना नहीं है बल्कि उसे संभव बनाना है।
इसके अलावा, उन्होंने दावा किया कि मिशनरी समुदाय से किसी को बाहर करना बारह प्रेरितों की योग्यता नहीं है, क्योंकि येसु के मिशन के लिए हमेशा एक बढ़े हाथ की आवश्यकता होती है।
उन्होंने मिशनरी विश्वास के उदाहरणों के रूप में संत पेत्रुस और संत मरिया मगदलेना को इंगित किया, लेकिन खमीर के दृष्टांत में गृहिणी की ओर भी इशारा किया। सोडिंग ने बताया, "केवल एक ही मिशन है, और वह है ईश्वर के आनेवाले राज्य की घोषणा करना। आकर्षण के माध्यम से मिशन काम करना ही कुंजी है।"
उन्होंने आगे कहा, संत पौलुस के अनुसार, “मिशनरी विकास उतना ही अधिक प्रभावी होता है जितना अधिक व्यक्ति विश्वास से भरा होता है, एक ऐसा विश्वास जिसे कभी भी हल्के में नहीं लिया जा सकता। प्रोफेसर ने जोर देकर कहा, "कमज़ोर लोगों को भी शामिल करने और प्रोत्साहित करने के लिए दूसरों के साथ सहानुभूति रखनी चाहिए," उन्होंने कहा कि प्रेरित "विश्वासियों को खुद पर निर्भर नहीं बनाता है बल्कि ख्रीस्त में स्वतंत्रता की घोषणा करता है।"
उन्होंने कहा कि ईशशास्त्रीय दक्षता धर्माध्यक्षों का विशेषाधिकार नहीं है, यह कलीसिया के लिए एक उपहार हैं, जिसके द्वारा वे कलीसियाई जीवन में भागीदारी के नए रूपों को प्रोत्साहित करते हैं।
अंत में, सोडिंग ने इस बात पर प्रकाश डाला कि उन लोकधर्मियों की अपेक्षाएँ बढ़ गई हैं जो कलीसिया के जीवन में सक्रिय और परिपक्वता से योगदान देना चाहते हैं: "वे अपेक्षा करते हैं कि उनकी बात सुनी जाएगी और वे अधिक पारदर्शिता की मांग करते हैं।"
कलीसिया, संस्कारीय विषय, सुसमाचार के व्याख्याता यहाँ और अभी
ऑरमंड रूश ऑस्ट्रेलियाई काथलिक विश्वविद्यालय, ब्रिस्बेन के पुरोहित और एसोसिएट प्रोफेसर एवं रीडर हैं। ऑस्ट्रेलियाई काथलिक ईशशास्त्रीय संघ के तीन कार्यकालों के लिए चुने गए अध्यक्ष, उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई महासमिति की दो सभाओं में एक विशेषज्ञ के रूप में कार्य किया है और धर्माध्यक्षों की धर्मसभा के महासचिव के सलाहकार हैं।
अपने भाषण में, रूश ने कलीसिया की समावेशी भावना पर जोर दिया, जिसे विश्वासियों के पूरे समूह के रूप में समझा जाता है, जिसमें पदानुक्रम शामिल है।
उन्होंने इस समझ के चार पहलुओं को चित्रित किया: ईश प्रजा एक व्याख्यात्मक विषय के रूप में; ईश प्रजा समय द्वारा निर्धारित विषय के रूप में; ईश प्रजा एक ऐसे स्थान पर स्थित हैं जो सुसमाचार को मूर्त रूप देने के लिए महत्वपूर्ण है; ईश प्रजा एक संस्कारात्मक विषय के रूप में।
इन अर्थों के आधार पर, रूश ने बताया कि कैसे प्रारंभिक ख्रीस्तीय समुदायों को सुसमाचार की व्याख्या करने की आवश्यकता थी ताकि इसे विभिन्न स्थानीय कलीसियाओं में लागू किया जा सके जो धीरे-धीरे उभरे। विभिन्न सिद्धांत सामने आए लेकिन उन्हें मसीह के संदेश के प्रति वफादार माना गया।
रूश ने कहा, "यह धर्मसभा एक व्याख्यात्मक विषय है जो जीवित और पूर्ण सुसमाचार के अर्थ के लिए आत्मा के मार्गदर्शन की तलाश करता है।" समय और स्थान स्पष्ट रूप से डेटा हैं जो कलीसिया और सुसमाचार को आकार देते हैं।
अंत में, रूश ने प्रतिमान 5वीं शताब्दी की काल्सीडॉन परिषद और द्वितीय वाटिकन परिषद के बीच एक समानता का उल्लेख किया। लुमेन जेंसियुम में, वाटिकन द्वितीय ने कलीसिया की जटिल ईश्वरीय और मानवीय वास्तविकता पर जोर दिया है, जो कि पहले की महासभाओं में परिभाषित मसीह के ईश्वरीय और मानवीय स्वभाव के समान है। उन्होंने कहा, लुमेन जेंसियुम इंगित करता है कि ईश्वरीय को कम करके आंकने से धर्मसभा को केवल एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है (बहुमत जीतता है); दूसरी ओर, मानवीय तत्व को कम करके आंकने से धर्मसभा को केवल एक परामर्श प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है (केवल अधिकारी पद ही निर्णय ले सकते हैं)।
अंत में, रूश ने कहा, "हमें दोहरे जोखिम से बचना चाहिए" और संतुलन बनाए रखने के लिए वाटिकन द्वितीय की ओर देखना चाहिए।