रोम की संरक्षिका माता मरियम को समर्पण का 80वाँ वर्षगाँठ
पोप फ्राँसिस ने रोम की संरक्षिका माता मरियम को रोम की सुरक्षा समर्पित करने की 80वीं वर्षगाँठ पर विश्वासियों को एक संदेश भेजा है।
रोम धर्मप्रांत के उप-प्रधान मोनसिन्योर बल्दीसेर्री को प्रेषित एक चिट्ठी में पोप फ्राँसिस ने कहा है कि 80 साल बाद, उस घटना की इतनी अर्थपूर्ण स्मृति का उद्देश्य, द्वितीय विश्व युद्ध में अपनी जान गंवानेवालों के लिए प्रार्थना करने तथा युद्ध की भयानक विपत्ति पर नए सिरे से चिंतन करने का अवसर प्रदान करना है।
संत पापा ने कहा, “मैं आध्यात्मिक रूप से सम्पूर्ण धर्मप्रांतीय समुदाय के साथ हूँ, जो पहली बार रोम की संरक्षिका संत मरिया को समर्पण का स्मरण मना रहा है, साथ ही उस प्रतिज्ञा को भी याद कर रहा हूँ, जो रोम के लोगों ने अपने संत पापा पियुस 12वें के साथ मिलकर 4 जून 1944 को माता मरियम से शहर की सुरक्षा के लिए प्रार्थना करने के लिए की थी, जब जर्मन सेना और एंग्लो-अमेरिकन सहयोगियों के बीच आमने-सामने की लड़ाई होनेवाली थी।”
पोप ने याद किया कि माता मरियम की उस प्राचीन तस्वीर की भक्ति आज भी संत मरिया मेजर महागिरजाघर में रोमवासियों के दिलों में जिंदी है। जो विशेष रूप से विपत्तियों, प्राकृतिक आपदाओं और युद्धों के दौरान प्रार्थना करने के लिए उसका सहारा लेते थे जब शहर नाजी तबाही के दुःस्वप्न का अनुभव कर रहा था।
रोम के धार्मिक और नागरिक जीवन की प्रमुख घटनाओं में इस तस्वीर को महत्वूर्ण स्थान मिला है, इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि रोम के लोग एक बार फिर रोम की संरक्षिका संत कुँवारी मरियम पर भरोसा करना चाहते हैं।
80 साल बाद, उस घटना की इतनी सार्थक स्मृति का उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध में अपनी जान गंवानेवालों के लिए प्रार्थना करने और युद्ध के भयानक संकट पर नए सिरे से चिंतन करने का अवसर प्रदान करना है। आज भी दुनिया के विभिन्न भागों में बहुत से संघर्ष खुले हैं।
पोप ने कहा, “मैं विशेष रूप से पीड़ित यूक्रेन, फिलिस्तीन और इस्राएल, सूडान, म्यांमार के बारे में सोच रहा हूँ, जहाँ हथियार अभी भी गरजते हैं और कितना अधिक मानव रक्त बहाये जा रहे हैं। ये ऐसी त्रासदियाँ हैं जो अनगिनत निर्दोष पीड़ितों को प्रभावित करती हैं, जिनकी आतंक और पीड़ा की चीखें हर किसी की अंतरात्मा पर सवाल करती हैं: कि हम हथियारों के तर्क के आगे नहीं झुक सकते और न ही झुकना चाहिए!”
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बीस साल बाद, 1965 में, पोप संत पॉल छटवें ने संयुक्त राष्ट्र में बोलते हुए खुद से पूछा: क्या दुनिया कभी भी उस विशेषवादी और युद्धप्रिय मानसिकता को बदल पाएगी जिसने अब तक इसके इतिहास को इतना प्रभावित किया है? (4 अक्टूबर 1965)। यह सवाल, जिसका अभी भी जवाब मिलना बाकी है, यूरोप और पूरी दुनिया में शांति के पक्ष में ठोस काम करने के लिए सभी को प्रेरित करता है। शांति ईश्वर की ओर से एक उपहार है, जिसे आज भी स्वीकार करने के लिए दिलों को तत्पर होना चाहिए और मेल-मिलाप के वास्तुकार और आशा के गवाह बनने के लिए काम करना चाहिए।
मुझे उम्मीद है कि ईश्वर की माँ के लिए इस समर्पण को मनाने की प्रचारित पहल, उन चार स्थानों पर जो उस घटना के नायक थे, रोमियों के बीच हर जगह सच्ची शांति के निर्माता होने के इरादे को पुनर्जीवित करेगी, संघर्षों और शत्रुता को रोकने के लिए एक आवश्यक शर्त के रूप में भाईचारे को फिर से बढ़ायेगी। जो लोग अपने भीतर इसे रखते हैं और साहस एवं सौम्यता के साथ, लोगों के बीच संबंध बनाने, रिश्ते बनाने और परिवार में, काम पर, स्कूल में, दोस्तों के बीच तनाव को कम करने के लिए खुद को प्रतिबद्ध करते हैं, वे शांति के निर्माता हो सकते हैं। इस प्रकार वह सुसमाचार के आनंद को महसूस करता है: "धन्य हैं वे जो शांति स्थापित करते हैं वे ईश्वर के बच्चे कहलाएंगे।" (मत्ती 5:9)
पोप ने अंत में लिखा, “कृपा की मध्यस्था करनेवाली मरियम, जो हमेशा अपने सभी बच्चों के प्रति सजग और देखभाल करनेवाली हैं, समस्त मानवता के लिए सद्भाव और शांति का उपहार प्राप्त करें।”
पोप ने रोम के सभी निवासियों, विशेषकर बुज़ुर्गों, बीमारों, अकेले और कठिनाई में पड़े लोगों के लिए रोम की संरक्षिका माता मरियम की मध्यस्थता द्वारा प्रार्थना की कि कोमलता और सांत्वना की कुँवारी, ईश्वर के प्रेम और दया को दुनिया में फैलाने के लिए, विश्वास, आशा और उदारता को मजबूत करें। “इन भावनाओं के साथ मैं आपको अपनी प्रार्थना का आश्वासन देता हूँ और दिल से अपना आशीर्वाद देता हूँ।”