पोप: पवित्र आत्मा उथल-पुथल ठीक करते हैं
पोप फ्रांसिस ने बुधवारीय आमदर्शन समारोह में पवित्र आत्मा और कलीसिया पर अपनी एक नई धर्मशिक्षा माला की शुरूआत की।
पोप फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्राँगण में एकत्रित सभी विश्वासियों और तीर्थयात्रियों का अभिवादन करते हुए कहा प्रिय भाइयो एवं बहनो, सुप्रभात।
आज की धर्मशिक्षा माला से हम “पवित्र आत्मा और वधू” की विषयवस्तु पर चिंतन शुरू करेंगे। कलीसिया को हम एक वधू के रुप में पाते हैं। पवित्र आत्मा ईश प्रजा को येसु ख्रीस्त, हमारी आशा से मिलन हेतु निर्देशित करते हैं। हम मुक्ति इतिहास की इस यात्रा को तीन स्तरों-प्राचीन विधान, नवीन विधान और कलीसियाई काल के आधार पर करेंगे। इस संबंध में हम अपनी निगाहों को येसु में जो हमारी आशा हैं गड़ाये रखते हैं।
धर्मशिक्षा मालाओं की इस कड़ी में हम प्राचीन विधान में पवित्र आत्मा की उपस्थिति का जिक्र करेंगे यद्यपि यह धर्मग्रंथ के पुरातन की खोज नहीं होगी। इसके बदले, हम इस बात की खोज करेंगे कि पुराने विधान की वह प्रतिज्ञा किस तरह नये विधान के इतिहास, येसु ख्रीस्त में अपनी पूर्णतः को प्राप्त करती है। यह अपने में भोर से लेकर दोपहार तक सूर्य के मार्ग का अनुसरण करने की तरह है।
पोप फ्रांसिस ने पुराने विधान धर्मग्रँथ के दो पदों से इस नयी विषयवस्तु पर अपनी धर्मशिक्षा माला को शुरू करते हुए कहा, “प्रारम्भ में ईश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी की सृष्टि की। पृथ्वी उजाड़ और सुनसान थी। अथाह गर्त्त पर अंधकार छाया हुआ था और ईश्वर का आत्मा सागर पर विचरता था।” (उत्पि.1.1-2)। ईश्वर का आत्मा हमारे लिए एक रहस्यमय शक्ति की भांति जान पड़ा है जो विश्व का संचालन शुरू से इसकी निराकारता, उजाड़ और सुनसान में करते हुए इसे एक व्यवस्थित और सामंजस्यपूर्ण स्थिति तक लाता है। दूसरे शब्दों में, यह वे हैं जो दुनिया की अथल-पुथल स्थिति से एक व्यवस्थित सुंदर स्थिति की स्थापना करते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि पवित्र आत्मा एकता स्थापक स्वरुप हैं, जो हमारे जीवन और दुनिया में संतुलन लाते हैं। वास्तव में, यूनानी भाषा कोसमोस और लातीनी भाषा मोंदुस का अर्थ यही है जो हमें सुन्दरता, अच्छी तरह व्यवस्थित और स्वच्छता, एकता की ओर इंगित करते हैं क्योंकि पवित्र आत्मा स्वयं अपने में एकता हैं।
पोप ने कहा कि पवित्र आत्मा के सृजनात्मक कार्य हमारे लिए स्तोत्र ग्रंथ में स्पष्ट होते हैं जो कहता है, “उसके शब्द मात्र से आकाश बना है, उसके श्वास मात्र से समस्त तारागण” (स्तो.33.6) इसके साथ ही पुनः हम सुनते हैं, “तू प्राण फूँक देता है, तो वे पुनर्जीवित हो जाते हैं और तू पृथ्वी का रुप नया बना देता है।” (स्तो.104.30)।
ये पक्तियाँ नये विधान में पूरी तरह स्पष्ट होती हैं जहाँ हम पवित्र आत्मा को नई सृष्टि की उत्पत्ति करते हुए सुनते हैं, जो हमें यर्दन नदी में येसु के बपतिस्मा में झलकता है (मत्ती.3.16)। वहीं येसु अंतिम व्यारी की कोठरी में शिष्यों के ऊपर फूंकते और उन्हें पवित्र आत्मा से पोषित करते हुए कहते हैं “पवित्र आत्मा को ग्रहण करो।” (यो.20.22), यह उसी भांति होता है जैसे कि ईश्वर ने शुरू में आदम के ऊपर प्राण वायु फूंका था। (उत्पि.2.7)
पोप ने कहा कि प्रेरित संत पौलुस इस संबंध में एक नयी बात पवित्र आत्मा और सृष्टि को हमारे समक्ष रखते हैं। वे सृष्टि के बारे में जिक्र करते हैं जो दुःख और प्रसव वेदना में कराहती है (रोम.8.22)। यह अपने में प्रताड़ना का अनुभव करती है क्योंकि यह मानवीय भ्रष्टचार से ग्रस्ति है। यह वह सच्चाई है जो गहराई और नटकीय रुप में हमारे संग जुड़ी है जो हमारे लिए चिंता का विषय है। प्रेरित सृष्टि में दुःख के कारण को मानवीय भ्रष्टचार और पाप के परिणाम स्वरुप देखते हैं जिसके कारण हम अपने को ईश्वर से दूर पाते हैं। यह हमारे लिए आज भी सत्य है जैसे कि यह पहले था। हम देखते हैं कि मानवता ने सृष्टि पर कितना कहर बरपाया है जो अब भी जारी है, खासकर जितना हो सके उसके संसाधनों के दोहन को लेकर।
पोप फ्रांसिस ने कहा कि अस्सीसी के संत फ्रांसिस हमारे लिए इसका एक निदान प्रस्तुत करते हैं जो हमें सृष्टिकर्ता आत्मा के संग एकता में लौट आने की बात कहती है- जिसे फलस्वरुप हम उसकी प्रंशसा करते हुए उस पर चिंतन करते हैं। वे ईश महिमा के एक गीत की चाह रखते हैं जो सृष्टि प्राणियों को सृष्टिकर्ता की ओर लेकर आता है, “तेरी स्तुति हो, मेरे प्रभु...।”