धर्मसभा की आध्यात्मिक साधनाः मित्रता
दोमेनिकन पुरोहित तिमथी पीटर योसेफ ने सिनोड की आध्यात्मिक साधना में भाग लेने वाले सभी प्रतिभागियों को मित्रता पर अपना तृतीय प्रवचन दिया।
तीसरा प्रवचन- मित्रता
अपनी मृत्यु से पहले रात को, येसु ने अपने पिता से प्रार्थना की, “वे एक हो जैसे हम एक हैं” (यो. 17.11) लेकिन शुरू से ही, जैसे कि हम नये विधान में पाते हैं, शिष्यों को हम अपने में विभाजित, लड़ते हुए एक दूसरे से अलग-थलग पाते हैं। हम इस धर्मसभा में जमा होते हैं क्योंकि हम भी अपने में विभाजित हैं और प्रार्थना करते हुए आशा करते हैं कि हमारे मन और हृदय एकता में बने रहें। यह हमारे ओर से दुनिया के लिए एक मूल्यवान साक्ष्य होगा जो युद्धों और असामानताओं से विखंडित है। ख्रीस्त का शरीर उस शांति का प्रतीक होना चाहिए जिसकी प्रतिज्ञा येसु करते हैं और जिसके लिए दुनिया तरसती है।
कल हमने विभाजन के दो स्रोत को देखाः हमारी विभाजित आशाएं और घर के रुप में कलीसिया के प्रति हमारा विभिन्न दृष्टिकोण। लेकिन हमारे लिए इन तनावों से विभाजित होने की कोई आवश्यकता नहीं है, हम आशा के धारक हैं जो आशा से परे आशा को ले जाते हैं, ईश्वर के राज्य में उसकी चर्चा करते हुए येसु कहते हैं कि “मेरे पिता से घर में बहुत से निवास स्थान हैं” (यो.14.1)।
निश्चित रूप में हर आशा या विचार अपने में वैध नहीं है। लेकिन रूढ़िवाद विस्तृत है और विधर्म संकीर्ण। य़ेसु अपनी भेड़ों को छोटे बंद स्थानों से विस्तृत विश्वास रुपी भेड़शाला की हरियाली में ले चलते हैं। पास्का में, वे उनका नेतृत्व करते हुए बंद कमरे से ईश्वरीय विशालता “दिव्य प्रचुरता” में उन्हें ले चलते हैं।
अतः हम एक साथ मिलकर उनकी सुनें। लेकिन कैसेॽ एक जर्मन धर्माध्यक्ष सिनोडल वाद-विवाद के दौरान “काटने वाले स्वर” से चिंतित थे। उन्होंने कहा कि वे एक व्यवस्थित बहस की तुलना में “मौखिक प्रहारों से अधिक आलंकृत है।” निश्चित रुप में वाद-विवाद में व्यवस्थित तर्क की जरुरत है। एक दोमेनिकन के रुप में मैं इस तर्क की महत्वपूर्णत को कभी नकार नहीं सकता हूँ। लेकिन इससे भी अधिक जरुरी बातें हैं यदि हम अपनी विभिन्नता से परे जाने की सोचते हैं। भेड़ें ईश्वर की आवाज पर विश्वास करती हैं क्योंकि यह मैत्रीपूर्ण है। यह धर्मसभा अपने में फलदायी होगी यदि यह हमें गहरे रुप में येसु और एक-दूसरे से मित्रता हेतु अग्रसर करे।
उस रात को अपनी मृत्यु से पहले, येसु ने अपने शिष्यों से कहा कि कौन मुझे धोखा, अस्वीकार और परित्यग करने वाला है, यह कहते हुए,“मैंने तुम्हें मित्र कहा है” (यो.15.15)। हम ईश्वर की चंगाई करने वाली मित्रता में आलिंगन किये जाते हैं जो हमारे कैदखानों के द्वारों को खोलती है जिसे हम अपने लिए तैयार करते हैं। “अदृश्य ईश्वर नर और नारियों से मित्र के रुप में बातें करते हैं” (वाटिकन द्वितीय, देऊ भेरबुम 2)। उन्होंने तृत्वमय मित्रता हेतु हमारे लिए मार्ग खोला है। यह मित्रता शिष्यों, चुंगी जमा करने वालों और वेश्याओं, वकीलों और परदेशियों को मिली थी। यह ईश्वर के राज्य का प्रथम स्वाद था।
दोनों पुराना विधान उत्कृष्ट यूनानी और रोमी इस मित्रता को अपने में असंभव पाते हैं। मित्रता केवल अच्छे लोगों के मध्य होती थी। दुष्टों के संग मित्रता अपने में असंभव समझी जाती थी। जैसे स्तोत्र 26 कहा है, “मैं अपराधियों के मंडली से घृणा करता हूँ और दुष्टों के साथ नहीं बैठता”। दुष्टों के मित्र नहीं होते क्योंकि वे केवल बुरे कार्यों से ताल्लुकात रखते हैं। लेकिन हमारे ईश्वर का सहचर्य आश्चर्य रुप में उनके साथ था। वे धोखाधड़ी करने वाले याकूब, व्यभिचारी और हत्यारे दाऊद तथा मूर्तिपूजा करने वाले सलोमोन को प्रेम करते हैं।
वहीं मित्रता केवल अपने बराबर वालों के साथ संभव होती थी। लेकिन कृपा ने हमें दिव्य मित्रता हेतु ऊपर ऊठाया है। आक्वीनस कहते हैं, “केवल ईश्वर हमें ईश्वर जैसा बना सकते हैं।” आज हम रक्षक दूतों का त्योहार मना रहे हैं, जो हमारे लिए ईश्वर के संग अद्वितीय मित्रता की निशानी हैं जिसे उन्होंने हममें से हरएक के लिए दिया है। रक्षक दूतों के पर्व दिवस पर संत पापा फ्रांसिस ने कहा, “कोई अपनी यात्रा अकेले नहीं करता है और किसी को यह नहीं सोचना चाहिए की वह अकेला है।” अपनी यात्रा में हम ईश्वर के आलिंगन में होते हैं।
सुसमाचार का प्रचार करना केवल सूचना का प्रसार करना कभी नहीं है। यह मित्रता का एक कार्य है। सौ साल पहले, भिन्सेट मैकनाब ओपी ने कहा, “उन्हें प्रेम करें जिन्हें आप प्रवचन देते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करते तो आप उन्हें उपदेश न दें। आप स्वयं को प्रवचन दें।” कहा जाता है कि संत दोमेनिक सभों के द्वारा प्रेम किये जाते थे क्योंकि उन्होंने सभों को प्रेम किया। सियेना की संत कैथरीन अपने मित्रों की एक मंडली से घिरी रहती थीं- नर और नारियाँ, लोकधर्मी और धर्मसंगी। वे अपने में कैथीरिनाती कैथरीन के लोग नाम से जाने जाते थे। संत मार्टिन दे पोरेस बहुधा एक बिल्ली, कुत्ते और एक चूहा के द्वारा दिखाये जाते हैं जो एक ही थाली से खाते थे। यह एक धर्मसंघी जीवन के लिए अच्छा चित्र है।
हम पुराने व्यवस्थान में नर और नारियों के मध्य एक सहज मित्रता को नहीं पाते हैं। ईश राज्य की शुरूआत येसु से होती है जो अपने मित्रों, नर और नारियों से घिरे थे। यहाँ तक की आज भी, बहुत से लोग नर और नारियों के बीच एक पवित्र संबंध की संभावना को लेकर संदेह की भावना रखते हैं। पुरूषों को दोषारोपण का भय होता है, नरियाँ पुरूषों के हिंसा से भयभीत होती हैं, युवा दुराचार से डरते हैं। हमें ईश्वर की विशाल मित्रता को अपनाने की जरुर है।