पोप : ईश्वर के निमंत्रण पर कान दें

पोप फ्रांसिस ने 15 अक्टूबर को, अपने रविवारीय देवदूत प्रार्थना के पूर्व विश्वासियों और तीर्थयात्रियों को दिये गये संदेश में ईश्वरीय निमंत्रण को सुनने का आहृवान किया।

वाटिकन स्थित संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्राँगण में रविवार 15 अक्टूबर को पोप फ्राँसिस ने भक्त समुदाय के साथ देवदूत प्रार्थना का पाठ किया। देवदूत प्रार्थना के पूर्व उन्होंने विश्वासियों को सम्बोधित कर कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनो, सुप्रभात।

आज का सुसमाचार पाठ एक राजा के बारे बतलाता है जो अपने पुत्र के लिए एक विवाह भोज की तैयारी करता है। (मती.22:1-14) वह एक ताकतवर व्यक्ति है लेकिन उससे भी बढ़कर एक उदार पिता है, जो अपनी खुशी बांटने के लिए दूसरों को निमंत्रण देता है। विशेष रूप से, इस संदर्भ में अपने दिल की अच्छाई को प्रकट करता है लेकिन वह किसी पर जोर जबरदस्ती नहीं करता है, वहीं वह सभी को आमंत्रित करता है, भले ही उसे अपने इस व्यवहार के लिए इनकार का सामना करना पड़ता है। हम इस बात पर गौर करें कि वह एक भोज की तैयारी करता है, एक उत्सव की तैयारी करता जहाँ लोग उनसे खुले रूप मिल सकते हैं। पोप ने कहा, “ईश्वर हमारे लिए ऐसा ही करते हैं, वे एक भोज तैयार करते हैं, जहाँ हम उनके साथ रहा सकें और आपस में एक-दूसरे से मिल सकें। अतः  हम सभी ईश्वर के मेहमान हैं। हम सभी ईश्वर के द्वारा बुलाये गये हैं। लेकिन शादी के भोज में शामिल होने के लिए हमारी ओर से समय और प्रतिबद्धता की आवश्यकता है: ईश्वर के निमंत्रण को स्वीकारने हेतु हमें "हाँ" कहने की आवश्यकता है, वे हमें बुलाते हैं लेकिन हमें स्वतंत्र छोड़ते हैं।

यह उस प्रकार का रिश्ता है जो पिता हमें प्रदान करते हैं: वे हमें अपने साथ रहने के लिए बुलाते हैं, लेकिन हमारे लिए यह संभावना भी छोड़ देते हैं कि हम निमंत्रण स्वीकार करें या नहीं। वे हमारे सामने अधीनता का रिश्ता नहीं, बल्कि पितृत्व और पुत्रत्व का रिश्ता प्रस्तावित करते हैं, जो निश्चय ही हमारी स्वतंत्र सहमति से निर्धारित होती है। संत ऑगस्टीन इस संबंध में एक बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति का प्रयोग करते हुए कहते हैं: "जिसने हमारी सहायता के बिना हमें बनाया, वे हमारी सहमति के बिना हमें नहीं बचायेंगे।” (उपदेश CLXIX, 13)। और निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि उसमें ऐसा करने की क्षमता नहीं है - वे सर्वशक्तिमान हैं। लेकिन, प्यार करने के नाते, वे हमारी स्वतंत्रता का पूरा सम्मान करते हैं। ईश्वर हमारे लिए प्रस्ताव रखते हैं: थोपते नहीं, वे अपनी बातों को हमारे ऊपर कभी नहीं थोपते हैं।

आइए, हम दृष्टांत पर गौर करेः सुसमाचार का पाठ कहता है कि राजा "विवाह की दावत में आमंत्रित लोगों को बुलाने के लिए अपने नौकरों को भेजा; परन्तु वे नहीं आये” (3)। यहाँ कहानी की सबसे बड़ी विडम्बना है: ईश्वर को "नहीं" कहना। लेकिन क्यों लोग उनके निमंत्रण को अस्वीकार करते हैं? क्या यह एक अप्रिय निमंत्रण था? नहीं, और फिर - सुसमाचार कहता है - "अतिथियों ने निमंत्रण की कोई परवाह नहीं की क्योंकि वे अपने ही कार्यों में मशगूल थे।” और वह राजा जो एक ईश्वर पिता हैं, वे क्या करते हैंॽ वे हिम्मत नहीं हारते हैं, वे निमंत्रण देना जारी रखते हैं, वास्तव में अपने निमंत्रण को सभों के लिए खुला करते हैं, गरीबों के लिए, जब तक वे उसे स्वीकार नहीं करते हैं। वे जो अपने में इस बात का अनुभव करते हैं कि उनके पास कुछ अधिक नहीं है, बहुत से लोगों आते हैं, और इस भांति विवाह भोज भर जाता है।

प्रिय भाइयो एवं बहनो, पोप ने कहा कि कितनी बार हम ईश्वर के निमंत्रण पर ध्यान देने में असफल हो जाते हैं, क्योंकि हम अपने ही कार्यों खोये रहते हैं। बहुधा, हम अपने को समय देने के लिए संघर्षरत रहते हैं, लेकिन येसु आज हमें अपने लिए समय निकालने का आहृवान करते हैं जो हमें स्वतंत्र करता है- एक समय जो हमें अपने बोझ से हलका करता और हमारे हृदयों को चंगाई प्रदान करता है। अपने लिए समय जो हममें शांति, विश्वास और खुशी लाती है, जो हमें बुराई से बचाती, हमारे अकेलेपन को दूर करती और हमारे जीवन को अर्थपूर्ण बनाती है। यह हमारे लिए जरूरी है, क्योंकि ईश्वर के साथ रहना, उनके संग समय व्यतीत करना हमारे लिए अच्छा है। संत पापा ने कहा कि हम मिस्सा बलिदान में उसके साथ रहते औऱ उनकी बातों को सुनते हैं। हम प्रार्थना, कमजोरों तथा गरीबों की सेवा करने में, अकेलेपन में रहने वालों के संग समय व्यतीत करने में, उनकी सुनते हुए जो अपनी बातों को हमसे कहने की चाह रखते हैं, दुःखियों को अपना सांत्वना देते हुए, ईश्वर के संग अपना समय व्यतीत करते हैं जो उन जरुरत के समयों में रहते हैं। बहुत से लोग, यद्यपि इन बातों को “समय की बर्बादी” स्वरुप देखते हैं अतः- वे अपने को अपनी ही व्यक्तिगत दुनिया में बंद कर लेते हैं, जो अपने में दुःख की बात है।

पोप ने कहा कि आइए तब हम अपने में पूछें, “हम कैसे ईश्वर के निमंत्रण का उत्तर देते हैंॽ हम उन्हें अपने दैनिक जीवन में कितना स्थान देते हैंॽ क्या मेरे जीवन का सार मेरे कार्यों और मेरे स्वतंत्र समय में मूल्यवान होता है या ईश्वर के प्रेम में, जहाँ हम अपने को अपने भाई-बहनों की सेवा में समर्पित करते हैं विशेष कर उनके लिए जिन्हें हमारी सक्त जरुरत है।

मरियम, जिन्होंने “हाँ” कहते हुए ईश्वर को अपने जीवन में स्थान दिया, हमारी मदद करें जिससे हम उनके निमंत्रणों के प्रति बहरे न रहें।