एशिया-प्रशांत देशों में पोप फ्राँसिस की यात्रा हुई समाप्त
एशिया और ओसियाना के चार देशों में 12 दिन व्यतीत करने के उपरान्त काथलिक कलीसिया के परमधर्मगुरु पोप फ्राँसिस शुक्रवार सन्ध्या पुनः रोम लौट रहे हैं।
इन्डोनेशिया, पापुआ न्यू गिनी, तिमोर लेस्ते तथा सिंगापुर की 11 दिवसीय प्रेरितिक यात्रा 87 वर्षीय पोप फ्राँसिस की अब तक की सर्वाधिक लम्बी और चुनौतीपूर्ण यात्रा थी। सिंगापुर स्थानीय समयानुसार शुक्रवार को, 12 बजकर 25 मिनट पर पोप ने सिंगापुर से रोम तक की लम्बी विमान यात्रा शुरु की थी, जो रोम समयानुसार सन्ध्या साढ़े छः बजे रोम के फ्यूमीचीनो अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पहुंच रही है।
एशिया महाद्वीप
2 से 13 सितंबर तक जारी एशिया-प्रशांत क्षेत्र के चार देशों में पोप फ्राँसिस की यात्रा का प्रथम पड़ाव विश्व का सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाला देश इन्डोनेशिया था। तदोपरान्त, उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध जनजातियों के देश पापुआ न्यू गिनी और फिर काथलिक बहुल देश तिमोर लेस्ते तथा अन्त में सिंगापुर की प्रेरितिक यात्राएँ कर यहाँ के काथलिक लोगों को उनके विश्वास में सुदृढ़ किया।
इटली से बाहर पोप फ्रांसिस की यह 45 वीं प्रेरितिक यात्रा थी, जिसके दौरान उन्होंने काथलिक कलीसिया के लिये एशिया के महत्व को उजागर करने का भरपूर प्रयास किया। वस्तुतः, एशिया के कुछेक क्षेत्र उन स्थानों में से एक है जहाँ बपतिस्मा प्राप्त ख्रीस्तीय विश्वासियों और धार्मिक बुलाहटों के मामले में कलीसिया पनप रही है। सन्त पापा फ्राँसिस के स्वागत एवं दर्शन हेतु इंडोनेशिया और पापुआ न्यू गिनी दोनों में लगभग 100,000 लोग, सिंगापुर में 50,000 और पूर्वी तिमोर में 600,000 लोग एकत्र हो गये थे।
रचनात्मक संवाद
एशिया और ओसियाना के उक्त चारों देशों में पोप फ्रांसिस ने हज़ारों का आलिंगन किया और समाज के विभिन्न पहलुओं को आशा और विश्वास का ख्रीस्तीय संदेश दिया। अंतिम दिन पोप ने सिंगापुरी समाज के व्यापक वर्ग के साथ अंतरंग संवाद किया। इस यात्रा का उपयोग पोप ने कुछ प्रमुख प्राथमिकताओं को उजागर करने के लिए किया, जिनमें अंतरधार्मिक और अंतरसांस्कृतिक संवाद पर ज़ोर, हाशिये पर जीवन यापन करनेवालों के प्रति उत्कंठा, पर्यावरण की देखभाल और आर्थिक विकास के आध्यात्मिक घटक को रेखांकित करना शामिल रहा।
अपनी यात्रा का समापन पोप फ्राँसिस ने सहिष्णुता के उसी संदेश के साथ किया जो उन्होंने शुरुआत में दिया था। युवाओं के एक समूह से उन्होंने कहा कि अलग-अलग धर्मों के लोगों को अपनी खुद की मान्यताओं की धार्मिकता पर ज़ोर देने के बजाय रचनात्मक संवाद में शामिल होने की ज़रूरत है। उन्होंने कहा, "सभी धर्म ईश्वर तक पहुंचने का एक मार्ग हैं, वे वहां पहुंचने के लिए अलग-अलग भाषाओं की तरह हैं, लेकिन ईश्वर सभी के लिए और सबके ईश्वर हैँ।"