सन्त पेत्रुस एवं सन्त पौलुस के महापर्व पर पोप फ्राँसिस

वाटिकन स्थित सन्त पेत्रुस महागिरजाघर में शनिवार को रोम के संरक्षक सन्त पेत्रुस एवं सन्त पौलुस के महापर्व के दिन पोप फ्रांसिस ने ख्रीस्तयाग अर्पित किया तथा अपने प्रवचन को इन दो महान सन्तों के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित किया।

पेत्रुस
उन्होंने स्मरण दिलाया कि ये दोनों सन्त साधारण व्यक्ति थे, पेत्रुस एक निर्धन मछुए थे जबकि पौलुस एक फरीसी जिन्होंने कलीसिया को उत्पीड़ित किया किन्तु ईश कृपा से उनका मनपरिवर्तन हुआ और वे अत्याचारी से राष्ट्रों के बीच सुसमाचार के महान प्रचारक बने।

पोप ने कहा कि ईश वचन के प्रकाश में हम इन सन्तों के जीवन एवं उनके प्रेरितिक उत्साह से प्रेरणा ग्रहण करें। उन्होंने कहा कि प्रभु येसु से साक्षात्कार के बाद इन दोनों ने नवजीवन का अनुभव पाया, वे स्वतंत्र हो गये तथा एक नवीन जीवन के दरवाज़े उनके समक्ष खुल गये।

2025 में मनाये जानेवाले पवित्र जयन्ती वर्ष के सन्दर्भ में सन्त पापा ने कहा, "जयन्ती वर्ष की पूर्व सन्ध्या हम सब भी दरवाज़े  की छवि पर चिन्तन करें।  जयन्ती वर्ष कृपा का समय होगा जब हम पवित्र द्वार को खोलेंगे ताकि सभी विश्वासी उस दहलीज़ को पार कर सकें जो जीवन्त येसु तक ले जाती है और उनमें ईश्वर के प्रेम का अनुभव पा सके, जो हमारी आशा को सुदृढ़ करता तथा हमारे आनन्द को नवीकृत करता है।"

पोप ने कहा कि सन्त पेत्रुस एवं सन्त पौलुस की कहानी में कई दरवाज़े खुलते हैं। हम पेत्रुस के कारावास से मुक्ति को याद करें, जो रात्रि के समय हुई थी। स्वर्गदूत ने पेत्रुस वही आदेश दिया था जो सदियों पूर्व इज़राएलियों को मिला था, प्रेरित चरित ग्रन्थ में निहित 12 वें अध्याय के अनुसार, दूत ने पेत्रुस से कहा कि वे कमर बाँधें,  चप्पल पहन लें और चादर ओढ़ कर उनके पीछे हो लें।

पोप ने कहा कि पेत्रुस ने दूत के आदेश का पालन किया क्योंकि उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया था कि प्रभु के दूत ने ही आकर उन्हें हेरोद के पंजे से छुड़ाया था। पोप ने कहा कि जिस प्रकार इज़राएली लोग तथा पेत्रुस ईश्वर की कृपा से छुड़ाये गये  थे उसी प्रकार ईश्वर अपनी दया को प्रकट करते हुए कलीसिया और जंज़ीरों में जकड़े अपने समस्त भक्तों को बचाते तथा उनकी जीवन रूपी तीर्थयात्रा में उनका समर्थन करते हैं।

पौलुस
पोप ने कहा कि इसी प्रकार पौलुस का जीवन भी एक पास्काई अनुभव है। ईश्वर की कृपा से दमिश्क के मार्ग में पुनर्जीवित येसु के साथ साक्षात्कार कर लेने के उपरान्त पौलुस का मनपरिवर्तन हुआ और उन्होंने क्रूसित येसु में  ध्यान लगाकर दुर्बलता की कृपा का मर्म समझा। इसीलिये सन्त पौलुस कुरिन्थियों को प्रेषित पत्र में लिखते हैं, मैं बड़ी खुशी से अपनी दुर्बलताओं पर गौरव करूँगा, जिससे मसीह का सामर्थ्य मुझ पर छाया रहे। मैं मसीह के कारण अपनी दुर्बलताओं पर, अपमानों, कष्टों, अत्याचारों और संकटों पर गर्व करता हूँ, क्योंकि मैं जब दुर्बल हूँ तब ही बलवान हूँ।

पोप ने कहा कि प्रभु येसु ख्रीस्त के संग हो जाने और उनके क्रूस पर चढ़ाये जाने की अनुभुति पा लेने के बाद गलातियों को प्रेषित पत्र के दूसरे अध्याय के 20 वें पद में सन्त पौलुस यह लिख सके कि "अब मैं जीवित नहीं रहा, बल्कि मसीह मुझ में जीवित हैं।" सन्त पापा ने कहा कि प्रभु येसु से पौलुस ने शक्ति प्राप्त की तथा राष्ट्रों के बीच वे एक महान सुसमचार प्रचारक बन सके।

उन्होंने कहा कि पौलुस ने सदैव खुले दरवाज़े की छवि का उपयोग किया और इसीलिये उन्होंने कई तीर्थयात्राएँ की और अपने प्रेरितिक मिशन को अन्जाम दिया। उन्होंने स्मरण दिलाया कि सन्त पौलुस ने अपने अनेक पत्रों में दरवाज़ों के खुलने का ज़िक्र किया है, जो इस बात का प्रतीक है कि हम भी अपने मन के द्वारों को अन्यों, और विशेष रूप से, ज़रूरतमन्दों के प्रति खुला रखें, ताकि सन्त पेत्रुस एवं सन्त पौलुस की तरह ही ईश कृपा के पात्र बन सकें।

दरवाज़े खुले रखें
रोम के संरक्षक सन्तों पेत्रुस एवं पौलुस के प्रति ध्यान आकर्षित कराते हुए सन्त पापा ने कहा, "हमारा आह्वान किया जाता है कि हम रोम को एक "खुले दरवाज़े वाले शहर"  के रूप में देखें।" उन्होंने कहा, "विगत शताब्दियों के अन्तराल में, ख़तरों और दुश्मनों से बचाव के लिए शहर की दीवारों में कई द्वार बनाए गए थे, लेकिन आज हमें एक ऐसे शहर की इच्छा पैदा करने की ज़रूरत है, जिसे रक्षात्मक बंदिशों की जरूरत नहीं, बल्कि ऐसे दरवाजों की ज़रूरत है जो आशा, भविष्य, सद्भाव और सभी को शामिल करते हुए समग्र विकास के लिए खुले रहें।"

पोप ने कहा, "रोम को हम खुले दरवाज़ों वाला स्थान बनाने की कल्पना करें और इसके लिए काम करें। ऐसा स्थान जो कंक्रीट और कारों में न घिरा हो, अपितु खुली जगहों वाला, ज़्यादा रहने लायक और सभी के लिए सुलभ स्थान बने। रोम आतिथ्य का वह स्थान बने, जहाँ हर कोई घर जैसा महसूस कर सके और कोई भी स्वतः को बहिष्कृत या उपेक्षित न समझे। ऐसा स्थान जो लोगों के बीच मेल-मिलाप, सामाजिक मैत्री और उदार एकजुटता को प्रोत्साहन दे सके। ऐसा स्थल जहाँ संस्कृति, कला और सौन्दर्य के अनुपम कोष की पुनर्खोज द्वारा जीवन की श्वास ली जा सके।"

अम्बरिका का अर्थ
सन्त पेत्रुस एवं सन्त पौलुस के महापर्व के दिन ही प्रतिवर्ष 29 जून को नवनियुक्त महाधर्माध्यक्षों को अम्बरिकाएँ प्रदान की जाती हैं।