नारी विमर्श 

भारत एक सांस्कृतिक व आध्यात्मिक राष्ट्र है और भारतीय संस्कृति में धर्म अर्थात प्रत्येक जीव का पारस्परिक दायित्व। भारत स्त्री-पुरुष की अवधारणा नहीं रखता। ये मानव मात्र की बात करता है। भारत प्रत्येक जीव जो अस्तित्व में है उसके स्वतंत्र अस्तित्व की बात न कहकर संयुक्त रूप से देखने और समझने की बात करता है, क्योंकि हम भारतीय पृष्ठभूमि पर स्त्री विमर्श और चिंतन की बात कर रहे हैं तो पहले भारतीय मूल को समझना जरुरी है स्त्री संबंधी प्रत्येक समस्या वास्तव में परिवार की समस्या है, क्योंकि परिवार समाज की इकाई है, तो ये समस्या • समाज और मूलतः राष्ट्र की समस्या है, भारत में व्यक्तित्व का विचार नहीं है। हर मानव वास्तव में समाज और राष्ट्र का तत्व है यही विचार हम रखते हैं। अब जरा बात करते है समस्याओं पर, समस्या स्वतंत्रता की, दायित्व की, सुरक्षा की या बराबरी से सहभागी न हो पाने की, तो क्या वास्तव में इसके लिए सामूहिक संघर्ष की आवश्यकता है या पारस्परिक पुनः विचार की, स्त्री मुक्ति आंदोलन यूरोप में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से शुरू हुआ, हमें आवश्यकता है मुक्ति आंदोलनों की मांगों को पढ़ने की, तब हम स्पष्ट हो सकेंगे की वो सभी मांगों का भारतीय पृष्ठभूमि पर महत्व है भी या नहीं, ये लड़ाई थी पूंजीवाद के विरुद्ध और ये लड़ाई प्रभावित हुए मार्क्सवाद के द्वितीय स्तर जिसे सांस्कृतिक मार्क्सवाद का नाम दिया गया। वास्तव में इसका भारत से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। 19वीं शताब्दी में स्त्री विमर्श पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण से लिखी पहली कृति बेवेलकी नारी और समाजवाद '1879' में आई। 19वीं शताब्दी में यूरोप व अमेरिका में स्त्रियों के कई संगठन खड़े हुए जिनका उद्देश्य स्त्री श्रम पर पाबंदियों के विरुद्ध संघर्ष करना था। वास्तव में बाह्य आक्रमणों के वर्षों संघर्ष ने भारतीय संस्कृति व समाज व्यवस्था का पतन अवश्य हुआ, परंतु अनेक समाज सुधारकों और चिंतकों, कवियों और लेखकों ने चैतन्य को जगाए रखा और संस्कृति पुनः उत्थान की ओर गई भी। वास्तव में इस उत्थान में समय तो लगा और अभी भी कई स्थानों पर हमारे प्रयास की आवश्कता है। भारत में वेदकाल की विदूषियां हों या मध्ययुग में अपने अस्तित्व संघर्ष करती भारत की वीरांगनाओं व वीर शासिकाएं, अपने पुत्रों के रूप में सशक्त मानव निर्माण करती माताएं या भक्तिकाल में समाज में भक्ति भाव जाग्रत करती स्त्रियां, सभी ने श्रेष्ठता-सी अपनी भूमिकाओं का निर्वहन किया और आज भी भारत वो राष्ट्र है, जहां एक बहन के साथ अमानवीय कृत्य संपूर्ण मानवता पर प्रश्नवाचक बन जाता है। भारत एकात्म मानव दर्शन का विचार रखता है। यहां स्वयं अर्थात् मैं जो कि शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के संयोजन का उत्पाद है, परंतु पश्चिमी विचारकों के लिए सब कुछ व्यक्ति के चारों ओर केंद्रित है। स्त्रीमुक्ति आंदोलन की समाप्ति एक रिक्तता के साथ ही इसने स्त्री को अकेला कर दिया, स्वयं के परिवार से दूर कर दिया, सही मायनों में ये असफलता की ओर ले गया। समाज में सुधार की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है, परंतु सुधार के क्या अंतिम परिणाम हम चाहते हैं और समाज को किस रूप में हम देखना चाहते हैं।