मानव गरिमा को लगातार दी जा रही है चुनौती, वाटिकन धर्माधिकारी

न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र संघीय मुख्यालय में नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, विदेशी द्वेष और संबंधित असहिष्णुता का उन्मूलन शीर्षक से जारी आम सभा के 79 वें सत्र में गुरुवार को शामिल राष्ट्रों के प्रतिभागियों को सम्बोधित कर वाटिकन के प्रतिनिधि महाधर्माध्यक्ष गाब्रिएल काच्चिया ने कहा कि मानव गरिमा और सम्मान को लगातार चुनौती दी जा रही है।

संयुक्त राष्ट्र संघ में परमधर्मपीठ के स्थायी पर्योवेक्षक महाधर्माध्यक्ष काच्चिया ने स्मरण दिलाया कि मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का पहला अनुच्छेद इस बात की पुष्टि करता है कि "सभी मनुष्य स्वतंत्र और समान रूप से सम्मान और अधिकारों के साथ पैदा होते हैं" इसके विपरीत, यह एक मान्यता प्राप्त मौलिक सत्य है और इतिहास ने दिखाया है कि इसे लगातार चुनौती दी जा रही है। उन्होंने कहा कि नवीनतम डेटा से पता चलता है कि दुनिया भर में लगभग छह में से एक व्यक्ति भेदभाव का अनुभव करता है, और नस्लीय भेदभाव, जातीयता, रंग या भाषा जैसे कारकों के आधार पर भेदभाव सबसे आम आधारों में से एक है।

नस्लवाद अस्वीकार्य

सन्त पापा फ्राँसिस के शब्दों को उद्धृत कर उन्होंने कहा, "हम किसी भी रूप में नस्लवाद और बहिष्कार को बर्दाश्त नहीं कर सकते या उस पर आंखें मूंद नहीं सकते क्योंकि नस्लवाद हर इंसान की अंतर्निहित ईश्वर प्रदत्त गरिमा का अपमान है, और इसीलिये नस्लवाद और नस्लीय भेदभाव का कोई भी सिद्धांत या रूप अस्वीकार्य है।

उन्होंने तीन बिन्दुओं की ओर ध्यान आकर्षित कराया जो विशेष रूप से चिन्ता का कारण बने हुए हैं, और वे हैं, आप्रवास संकट, धार्मिक असहिष्णुता और ऑनलाइन और डिजिटल प्लेटफार्मों पर नस्लवाद और विदेशी द्वेष में वृद्धि।

आप्रवास संकट

आप्रवास संकट पर बोलते हुए उन्होंने कहा, ऐसी दुनिया में, जहाँ पहले से कहीं ज़्यादा लोग पलायन कर रहे हैं, प्रवासी, शरणार्थी और उनके परिवार अक्सर नस्लवाद के एक हिंसक रूप का शिकार होते हैं। प्रवासन, भय और चिंता की भावना पैदा कर सकता है जो अक्सर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए बढ़ जाती है और उसका शोषण किया जाता है। जैसा कि पोप फ्रांसिस ने कहा है, "इससे ज़ेनोफ़ोबिक मानसिकता पैदा हो सकती है, क्योंकि लोग खुद को बंद कर लेते हैं, और इसे निर्णायक रूप से संबोधित करने की आवश्यकता है।"  प्रवासियों को हमेशा ऐसे इंसानों के रूप में देखा जाना चाहिए जो "किसी भी व्यक्ति के समान ही आंतरिक गरिमा रखते हैं।"

धार्मिक असहिष्णुता
दूसरी चिन्ता उन्होंने कहा, धार्मिक असहिष्णुता, भेदभाव और उत्पीड़न के मामलों में निरंतर वृद्धि के बारे में है। व्यक्तियों और समुदायों को निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में अपने धर्मपालन और विश्वास के ख़ातिर प्रतिबंधों और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। इस तरह के प्रतिबंध धर्म या विश्वास की स्वतंत्रता के मूल सिद्धांत को कमजोर करते हैं। धार्मिक स्वतंत्रता पर गंभीर प्रतिबंधों के मद्देनज़र परमधर्मपीठ इस बात पर ज़ोर देती है कि सरकारों को अपने नागरिकों के इस अधिकार की रक्षा करने की प्राथमिक जिम्मेदारी उठानी चाहिए, क्योंकि यह गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक न्यूनतम आवश्यकताओं में से एक है।

डिजिटल प्लेटफार्मों पर नस्लवाद
महाधर्माध्यक्ष ने कहा कि ऑनलाइन और डिजिटल प्लेटफार्मों पर नस्लवाद और विदेशी द्वेष में वृद्धि हमारी तीसरी बहुत बड़ी चिन्ता है। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर प्रचलित सामग्री को विनियमित नहीं किया जाता है और यह गहन चिन्ता का विषय है। इस संकट से निपटने में प्रतिक्रिया रणनीति के रूप में और दीर्घकालिक निवारक उपाय के रूप में शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें न केवल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए एक नई प्रतिबद्धता शामिल है, जो प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पूरी क्षमता तक पहुँचने और आम भलाई को आगे बढ़ाने में सक्षम बनाती है, बल्कि यह मान्यता भी शामिल है कि शिक्षा सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण रूप से परिवारों में शुरू होती है, जिसमें माता-पिता मानवीय मूल्यों के प्राथमिक शिक्षक होते हैं।