पोप : संत हमें ईश्वर की ओर देखने के लिए प्रेरित करते हैं

रविवार 7 सितम्बर को संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्राँगण में इटली के दो युवाओं पियर जोर्जो फ्रसाती और कार्लो अकुतिस की संत घोषणा के अवसर पर आयोजित समारोही पावन ख्रीस्तयाग में लगभग 80 हजारों श्रद्धालुओं ने भाग लिया, जिन्हें संबोधित करते हुए पोप लियो 14वें ने कहा कि इन दो युवा संतों के उदाहरण हम सभी को, खासकर युवाओं को, प्रेरित करते हैं कि हम अपने जीवन को ईश्वर की ओर मोड़ें और उसे पवित्रता, सेवा और खुशी का एक उत्कृष्ट आदर्श बनाएँ।
वाटिकन स्थित संत पेत्रुस महागिरजाघर प्राँगण में इटली के दो युवा संतों, पियर जोर्जो फ्रसाती और कार्लो अक्युतिस की संत घोषित समारोह की अध्यक्षता करते हुए, पोप लियो 14वें ने, दोनों नये संतों को ईश्वर पर उनकी आस्था, आशा और विश्वास के असाधारण उदाहरण तथा ईश्वर की महान योजना के प्रति उनके समर्पण के लिए उन्हें श्रद्धांजलि दी।
पोप लियो 14वें ने 7 सितंबर को, ग्रीष्म ऋतु की एक बेहद खूबसूरत दिन में, समारोह की शुरुआत में, दोनों युवाओं को संत घोषित किया।
अपने आपको प्रभु को देना
पोप लियो 14वें ने समारोही ख्रीस्तयाग के दौरान अपने प्रवचन में कहा, “पहले पाठ में हमने एक प्रश्न सुना, "[प्रभु] आपकी इच्छा कौन जान सकता था, यदि आपने हमें प्रज्ञा न दी होती और अपनी पवित्र आत्मा को ऊपर से न भेजा होता?" (प्रज्ञा 9:17)
हमने यह बात दो युवाओं पियर जोर्जो फ्रसाती और कार्लो अकुतिस, को संत घोषित किए जाने के बाद सुनी, और यह ईश्वरीय कृपा है। दरअसल, प्रज्ञा ग्रंथ में यह प्रश्न उनके जैसे ही एक युवा, राजा सुलेमान, से जुड़ा है। अपने पिता दाऊद की मृत्यु के बाद, सुलेमान को एहसास हुआ कि उसके पास बहुत कुछ है: शक्ति, धन, स्वास्थ्य, यौवन, सौंदर्य और एक सम्राज्य। लेकिन संसाधनों की इसी प्रचुरता ने उसके मन में एक प्रश्न उत्पन्न किया, "मुझे क्या करना चाहिए ताकि कुछ भी नष्ट न हो?" और वह समझ गया कि उत्तर पाने का एकमात्र तरीका ईश्वर से एक और भी महान वरदान माँगना है, उनकी प्रज्ञा को ताकि उनकी योजनाओं को समझ सके और उनका ईमानदारी से पालन करे। उसने वास्तव में यह भी समझा कि केवल इसी तरह से हर चीज़ प्रभु की महान योजना में अपना स्थान पा सकेगी। क्योंकि जीवन का सबसे बड़ा खतरा यही है कि उसे ईश्वर की योजना के बाहर बर्बाद कर देना।
सुसमाचार में, येसु भी हमें एक योजना के बारे बताते हैं जिसका हमें पूरी तरह पालन करना चाहिए। वे कहते हैं: "जो कोई अपना क्रूस उठाकर, मेरे पीछे नहीं आता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता" (लूका 14:27); और फिर: "तुम में से जो कोई अपना सब कुछ न त्याग दे, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता" (पद 33)। वे हमें बुलाते हैं, कि हम बिना किसी हिचकिचाहट के, उनके द्वारा प्रस्तावित साहसिक कार्य में, उस प्रज्ञा और शक्ति के साथ, जो उनकी आत्मा से आती है, और जिसे हम इस हद तक अपना सकते हैं कि हम खुद को, उन चीज़ों और विचारों को जिनसे हम जुड़े हुए हैं, त्याग दें और उनके वचन को सुनें।
प्रभु को “हाँ” कहना
सदियों से कई युवाओं को जीवन में इस दोराहे का सामना करना पड़ा है। असीसी के संत फ्रांसिस का उदाहरण लीजिए: सुलेमान की तरह, वे भी जवान और धनी थे, यश और प्रसिद्धि के प्यासे थे। इसी कारण, वे युद्ध के लिए निकले थे, इस आशा में कि उन्हें "शूरवीर" का पद दिया जाएगा और सम्मानों से नवाज़ा जाएगा। लेकिन रास्ते में येसु उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें अपने कर्मों पर विचार करने के लिए प्रेरित किया। होश में आने पर, उन्होंने ईश्वर से एक सरल प्रश्न पूछा: "प्रभु, आप मुझसे क्या करवाना चाहते हैं?" और वहाँ से, अपने कदमों को पीछे खींचते हुए, उन्होंने एक अलग कहानी लिखनी शुरू की, पवित्रता की अद्भुत कहानी जिसे हम सभी जानते हैं, प्रभु का अनुसरण करने के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया (लूका 14:33), गरीबी में जीवन व्यतीत किया और अपने भाइयों के प्रति प्रेम को प्राथमिकता दी, विशेष रूप से सबसे कमजोर और सबसे छोटे भाइयों के प्रति।
और कितने ही अन्य संतों को हम याद कर सकते हैं! कभी-कभी हम उन्हें महान व्यक्तियों के रूप में चित्रित करते हैं, यह भूल जाते हैं कि उनके लिए यह तब शुरू हुआ जब, वे युवावस्था में ही थे, उन्होंने ईश्वर को "हाँ" कहा और खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया, बिना कुछ छिपाए। संत ऑगस्टाइन इस संबंध में बताते हैं कि उनके जीवन की "कठिन और उलझी हुई गाँठ" में, उनके भीतर एक आवाज़ ने उनसे कहा: "मैं तुम्हें चाहता हूँ।" और इस प्रकार ईश्वर ने उन्हें एक नई दिशा, एक नया मार्ग, एक नया तर्क दिया, जिसमें उनके अस्तित्व का कुछ भी नहीं खोया।