पोप : संत फ्रांसिस जेवियर का प्रेरितिक उत्साह अद्वितीय
पोप फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह में प्रेरिताई के संरक्षक संत फ्रांसिस जेवियर के जीवन की चर्चा करते हुए उनके प्रेरितिक उत्साह पर चिंतन किया।
पोप फ्राँसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्रांगण में एकत्रित सभी विश्वासियों और तीर्थयार्त्रियों को संबोधित करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों, सुप्रभात।
पोप ने कहा कि हम अपनी धर्मशिक्षा माला में प्रेरितिक उत्साह की चर्चा कर रहे हैं। हम इस बात की याद करें कि इतिहास में बहुत सारे नर-नारियाँ हैं जिन्होंने येसु ख्रीस्त के नाम को प्रसारित किया है, उन्होंने इसे बड़े ही अनुकरणीय ढ़ंग से किया है। इस संदर्भ में आज हम संत फ्रांसिस जेवियर का जिक्र करेंगे, जो आधुनिक समय के महानतम प्रेरित माने जाते हैं। संत फ्रांसिस जेवियर बालक येसु की संत तेरेसा की भांति प्रेरिताई के संरक्षक संत हैं। लेकिन एक प्रेरित अपने में महान है जब वह दूसरों के लिए जाता है। संत पापा ने कहा कि हम बहुत सारे पुरोहितों, लोकधर्मियों, धर्मबहनों को देखते हैं जो अपनी मातृ भूमि को छोड़कर प्रेरितिक कार्य हेतु विभिन्न स्थानों में जाते हैं। यह प्रेरितिक उत्साह को व्यक्त करता है। “हमें इसे धारण करने की जरुरत है, हम अतीत के प्रेरितों को देखते हुए इस मनोभाव को अपने में विकसित करें।”
फ्रांसिस का जन्म उत्तरी स्पेन के नभार में एक कुलीन लेकिन गरीब परिवार में सन् 1506 ई को हुआ था। वे एक कुशाग्रबुद्धि युवा थे जो अपनी पढ़ाई हेतु पेरिस गये। वहाँ उनकी मुलाकात लोयोला के इग्नासियुस से हुई। वे उनके लिए आध्यात्मिक साधना की अगुवाई करते और यह उनके जीवन को परिवर्तित कर देता है। वे दुनियावी जीवन का परित्याग करते और एक प्रेरित बन जाते हैं। वे एक येसु समाजी बनते और व्रत धारण करते हैं। इसके बाद वे पुरोहित बनते और उन्हें प्रेरिताई हेतु पूरब की ओर भेजा जाता है। उस समय पूरब की ओर प्रेरिताई में जाना अज्ञात दुनिया की ओर जाना था लेकिन वे प्रेरितिक उत्साह के कारण निकल पड़ते हैं।
इस भांति प्रथम जोशीले प्रेरितों का एक दल प्रेरितिक उत्साह से पूर्ण, कठिनाइयों और खतरों का सामना करने को तैयार होकर, उन अनजान जगहों औऱ लोगों के बीच पहुँचा जहाँ की संस्कृतियाँ और भाषाएं अपने में विचित्र थीं। उनकी तीव्र इच्छा यही थी कि वे ख्रीस्त के सुसमाचार को प्रसारित करें।
पोप फ्रांसिस ने कहा कि सिर्फ ग्यारह वर्षों में ही उन्होंने अद्वितीय कार्य किये। नावों की यात्रा उस समय कठिन और जोखिम भरी थी। बहुत से लोग समुद्री यात्रा में जहाजों के टूटने या बीमारियों के कारण मर गये। “आज बहुत से लोग भूमध्यसागर में मरते हैं क्योंकि हम उन्हें मरने के लिए छोड़ देते हैं...” फ्रांसिस जेवियर करीबन साढ़े तीन सालों तक समुद्र में ही रहे। भारत जाने के लिए उन्होंने तीन साल की समुद्री यात्रा की और फिर वे भारत से जापान गये।
भारत में, गोवा पहुंच कर, जो पूर्वी पुर्तागाल की राजधानी के साथ-साथ संस्कृति और व्यपार का केन्द्र था, वहाँ अपना निवास तैयार किया, लेकिन वे वहाँ नहीं रूके। वे गरीब मछुवारों के बीच सुसमाचार प्रचार के लिए भारत के दक्षिण प्रांत में गये। वहाँ उन्होंने बच्चों को धर्मशिक्षा दी औऱ बीमारों को बपतिस्मा संस्कार देते हुए उनकी सेवा की। तब, एक रात को प्रेरित संत बरथोलोमी की कब्र के पास रात्रि वंदना के समय उन्होंने यह अनुभव हुआ कि उन्हें भारत से परे जाना चाहिए। जिन कार्यों की शुरूआत उन्होंने की थी वे सही सलामत चल रहे थे अतः वे साहसपूर्वक मोलुकास की समुद्री यात्रा में निकल पड़े, जो इंडोनेशियाई द्वीपसमूह का सबसे दूर एक द्वीप था। इन प्रेरितों के लिए कोई क्षितिज नहीं थी वे साहस में अपने से परे गये। आज भी कई हैं जो 24 घंटे की हवाई यात्रा करते हुए प्रेरिताई के लिए जाते हैं लेकिन यह उन दिनों से अलग है। वहाँ उन्हें जगलों में हजारों किलो मीटर की पैदल यात्रा करनी होती थी। संत फ्रांसिस जेविरय ने मोलुकास में धर्मशिक्षा को स्थानी भाषा में गीत का रुप दिया और उन्हें गाना सिखाया क्योंकि गीतों में उन्हें अच्छी तरह समझा जा सकता था। हम उनके मनोभावनाओं को उनके पत्र के आधार पर समझते हैं। वे लिखते हैं, “खतरे और तकलीफें, स्वेच्छा से और केवल ईश्वर के प्रेममय सेवा भाव से ग्रहण किया जायें तो वे आध्यात्मिक सांत्वना की समृद्धि बनते हैं। यहाँ, कुछ सालों में ही, कोई अपनी आखों को अत्यधिक खुशी की आंसू से खो सकता है।” (20 जनवरी 1548)। ईश्वर के कार्यों को देखकर उनकी आंखों से खुशी के आँसू बहते थे।
एक दिन, भारत में, उनकी मुलाकात एक जापानी व्यक्ति से हुई जिन्होंने उन्हें अपने सुदूर देश की चर्चा की, जहाँ कोई यूरोपीय प्रेरित अब तक नहीं पहुंचा था। संत फ्रांसिस में प्रेरिताई का तीव्र उत्साह था अतः वे अति शीघ्र वहाँ जाने का निर्णय किया, और एक चीनी व्यक्ति के कबाड़ में साहसिक यात्रा करते हुए वहाँ पहुंचे। जापान में तीन साल उनके लिए बेहद कठिन रहा, मौसम, विरोध और भाषा की अज्ञानता लेकिन वहाँ भी उन्होंने सुसमाचार के बीज बोये जो बहुत फल उत्पन्न किया।