इंडोनेशिया में ख्रीस्तयाग में पोप : भ्रातृत्व का सपना देखने का साहस करें
इंडोनेशिया में अपनी प्रेरितिक यात्रा के अंतिम दिन पोप फ्राँसिस ने जकार्ता के गेलोरा बंग कार्नो स्टेडियम में ख्रीस्तीयाग अर्पित किया। पोप ने विश्वासियों को याद दिलाया कि उन्हें येसु द्वारा घोषित वचन को सुनने और उसके अनुसार जीने की आवश्यकता है।
लाल गेट से गेलोरा बंग कर्णो स्टेडियम में प्रवेश करने से पहले, पोप ने स्टेडियम से सटे स्टेडियम मड्या ए में उपस्थित विश्वासियों के बीच खुली कार से भ्रमण कर उनका अभिवादन किया। लातीनी और इंडोनेशियाई भाषा में अर्पित ख्रीस्तयाग में करीब 1,00,000 विश्वासियों ने भाग लिया।
पोप ने उपदेश में कहा, “येसु के साथ मुलाकात हमें दो आधारभूत मनोभावों को जीने का निमंत्रण देता है, जो हमें उनका शिष्य बनाता : ईश वचन को सुनना एवं ईश वचन को जीना।”
पहले, सुनना, क्योंकि सब कुछ सुनने से आता है, स्वयं को उसके प्रति खोलने से, उसकी मित्रता के अनमोल उपहार का स्वागत करने से। उसके बाद ईश वचन को जीना जिसको हमने ग्रहण किया है, ताकि हमारा सुनना व्यर्थ न हो एवं हम खुद को धोखा न दें। वास्तव में, जो लोग केवल अपने कानों से सुनने का जोखिम उठाते हैं, वे वचन के बीज को अपने हृदय में उतरने नहीं देते और इस प्रकार अपने सोचने, महसूस करने और कार्य करने के तरीके को बदलने नहीं देते। जबकि सुनने के माध्यम से, दिया गया और प्राप्त किया गया वचन, हमारे अंदर जीवन लाना, हमें बदलना और हमारे जीवन का भाग बनना चाहता है।
सुसमाचार पाठ पर चिंतन करते हुए पोप ने कहा, “सुसमाचार पाठ जिसकी घोषणा हमने अभी-अभी की, हमें उन दो महत्वपूर्ण मनोभावों - वचन को सुनने और वचन को जीने- पर चिंतन करने में मदद करता है।”
सुसमाचार लेखक बताते हैं कि बहुत से लोग येसु के पास आए और “ईश्वर का वचन सुनने के लिए भीड़ उनपर गिरी पड़ती थी।” (लूक.5:1) वे ईश्वर के वचन को खोज रहे थे, उसके लिए भूखे एवं प्यासे थे और उन्होंने इसे येसु के शब्दों में गूँजते हुए सुना।
पोप ने कहा, “यह दृश्य, सुसमाचार में कई बार दोहराया गया है, जो हमें बताता है कि मानव हृदय हमेशा एक सत्य की खोज में रहता है जो उसकी खुशी की चाह को पूरा कर सके। इसलिए हम केवल मानवीय शब्दों, इस दुनिया की सोच और सांसारिक निर्णयों से संतुष्ट नहीं हो सकते।”
हमें हमेशा ऊपर से एक प्रकाश की आवश्यकता है जो हमारे कदमों को आलोकित करे; जीवन जल जो हमारी निर्जन आत्मा की प्यास बुझाये; सांत्वना जो निराश नहीं करती क्योंकि यह स्वर्ग से आती है न कि इस दुनिया की क्षणभंगुर चीज़ों से। मानवीय शब्दों की उलझन और व्यर्थता के बीच, ईश्वर के वचन की आवश्यकता है, जो हमारी यात्रा के लिए एकमात्र सच्चा दिशासूचक है, जो अकेले ही हमें इतनी चोट और उलझन के बीच जीवन के सच्चे अर्थ की ओर ले जाने में सक्षम है।
शिष्य का पहला काम
पोप कहा, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शिष्य का पहला काम बाहरी तौर पर पूर्ण धार्मिकता का वस्त्र पहनना, असाधारण काम करना या भव्य उपक्रमों में शामिल होना नहीं है। इसके बजाय, पहला कदम यह जानना है कि उद्धार करनेवाले एकमात्र शब्द, येसु के वचन को कैसे सुनना है। हम इसे सुसमाचार के दृश्य में देख सकते हैं, जब गुरु किनारे से खुद को थोड़ा दूर करने के लिए पतरस की नाव में चढ़ते हैं और इस तरह लोगों को बेहतर ढंग से उपदेश देते हैं।” (लूक. 5:3)
इस प्रकार, हमारे विश्वास के जीवन की शुरूआत तब होती है जब हम अपने जीवन रूपी नाव पर येसु का स्वागत करते हैं, उनके लिए जगह बनाते, उनका वचन सुनते और खुद को उनसे प्रश्न पूछे जाने, चुनौती दिये जाने और बदलने की अनुमति देते हैं।
साथ ही, प्रभु का वचन हमें उसे ठोस रूप से आत्मसात करने के लिए कहता है, ताकि हम वचन के अनुसार जीवन जी सकें। दरअसल, नाव से भीड़ को उपदेश देने के बाद, येसु पेत्रुस की ओर मुड़ते हैं और उसे उस वचन पर दांव लगाने का जोखिम उठाने की चुनौती देते हैं, "गहरे पानी में जाओ और मछलियाँ पकड़ने के लिए अपने जाल डालो।" (पद 4)