धर्माध्यक्ष के रूप में अम्ब्रोस बड़े ही सरल एवं तपस्यामय जीवन बिताने लगे। पितृ-तुल्य प्रेम और न्याय के साथ वे अपने विश्वासी समुदाय की देखभाल करते थे; और शीघ्र ही अपने सारपूर्ण, संक्षिप्त एवं व्यावहारिक प्रवचनों के कारण प्रसिद्द हो गए। उनके प्रेरणात्मक वचनों से प्रभावित होकर ही सन्त अगस्तिन का मन-परिवर्तन हुआ; और वे कलीसिया में लौट आये और पुरोहित, बिशप सन्त बने। अगस्तिन की माता मोनिका भी अम्ब्रोस की मित्र थी। अम्ब्रोस अपनी विशेष क्षमता, ईश-शास्त्र के गहरे ज्ञान एवं तीव्र विश्वास के द्वारा एरियस पाखण्ड-मत के अनुयायियों का निरंतर सामना करते और उनको पराजित करते थे। उन्होंने अनेक धार्मिक ग्रंथों की रचना की जो विश्वासियों को अपने ख्रीस्तीय विश्वास में सुदृढ़ करने एवं अविश्वासियों को ईश्वरीय सत्य को पहचानने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए। उन्होंने अनेक धार्मिक गीतों की भी रचना की जो कलीसिया की दैनिक प्रार्थनाओं में अब भी उपयोग में लाये जाते है। वे कलीसिया के महान धर्माचार्य थे। ईश्वर एवं कलीसिया की सेवा में निरंतर कठिन परिश्रम करते हुए अप्रैल सन 397 को केवल 57 वर्ष की आयु में इस सन्त धर्माध्यक्ष का देहान्त हो गया। माता कलीसिया सन्त अम्ब्रोस का पर्व 07 दिसंबर को मनाती है, जिस दिन वे अद्भुद रीति से धर्माध्यक्ष चुने गए थे।

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