उन दिनों सारे यूरोप में धार्मिक पुनर्जागरण का आंदोलन चल रहा था। साथ ही सारे तुर्क देशों ने संगठित हो कर सभी ख्रीस्तीय देशों पर आक्रमण करने की योजना बनायीं। इस पर संत पिता पियूस पांचवे ने सभी ख्रीस्तीय राजाओं से आग्रह किया कि वे भी एक साथ संगठित होकर उनके आक्रमण से देश एवं कलीसिया की रक्षा करे। संत पिता ने फ्रांसिस बोर्जिया से भी अपनी इच्छा प्रकट की कि वे इस ख्रीस्तीय सेना के संचालन में सहायता करें। फ्रांसिस का स्वास्थ्य काफी ख़राब था और वे यात्रा करने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी संत की इच्छा को शिरोधार्य कर वे ख्रीस्तीय सेना अधिकारीयों की सहायता के लिए आगे बढ़े और उनके साथ सैनिक अभियान में चले गए। किन्तु कुछ ही दिनों की यात्रा के बाद उनका स्वास्थ्य और भी अधिक बिगड़ गया। अतः उन्होंने रोम लौटना चाहा। किन्तु रोम की ओर लौटते हुए उनकी हालत बहुत गंभीर हो गयी। फिर भी वे किसी तरह रोम पहुँच गए और वहाँ 19 अक्टूबर 1572 को उनका देहांत हो गया।
इस प्रकार संत फ्रांसिस बोर्जिया ने सारे संसार में प्रभु के राज्य की स्थापना एवं कलीसिया के निर्माण के लिए जीवनभर अथक परिश्रम किया और इसी लक्ष्य के लिए संत पिता के प्रति अपनी आज्ञाकारिता के कारण सहर्ष अपना जीवन न्यौछावर कर दिया।
सन १६७० में संत पिता क्लेमेंट दसवें ने उन्हें संत घोषित किया। वे पुर्तुगल के संरक्षक संत माने जाते हैं। माता कलीसिया 10 अक्टूबर को संत फ्रांसिस बोर्जिया का पर्व मनाती है।

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