यद्यपि फाउस्टीना का स्वास्थ्य प्रारम्भ से काफी कमजोर था, किन्तु सन 1936 में वह अत्यंत गंभीर रूप से रोग-ग्रस्त हो गयी। जाँच से पता लगा कि उसे क्षय रोग हो गया है। उन दिनों इस बिमारी का कोई सफल इलाज़ नहीं था। चूँकि यह संक्रामक रोग था इसलिए उन्हें मठ से दूर एक स्वास्थ्य-वर्द्धक निवास में रखा गया। वहाँ उन्होंने प्रभु की इच्छा को सहर्ष स्वीकार किया और ईश्वरीय दया की माला विनती पढ़ते हुए अधिकतर समय पापियों के मन परिवर्तन के लिए प्रार्थना करने में बिताया। जब उसके स्वास्थ्य में कुछ सुधर हुआ, तब वह अपने मठ की बीमार बहनों की सेवा करती और स्वास्थ्य केंद्र में जा कर वहाँ के रोगियों से मुलाकात करती थी। दो वर्ष समाप्त होते-होते उनका स्वास्थ्य अत्यंत दुर्बल हो गया और सन 1938 में इसी रोग से फाउस्टीना का देहांत हो गया। तत्पश्चात उनके निकट संगी-साथी भी आश्चर्य चकित रह गए, जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी इस विनीत बहन ने कितना भारी दुःख सहा था और कितना गहरा ईश्वरीय अनुभव उसे प्राप्त हुआ था; जिस पर भी वह सदैव कितनी प्रसन्न एवं विनम्र रहती थी; कि अपने प्रभु के इस सुसमाचारी आदेश को उसने अपने हृदय की गहराई तक अपना लिया था- "दयालु बनो, जैसे तुम्हारा स्वर्गीय पिता दयालु है।" साथ ही साथ अपने आध्यात्मिक संचालक का यह निर्देश भी कि जो कोई आपके संपर्क में आये, वे सब खुश हो कर लौटें- उन्होंने पूर्ण रूप से अपने जीवन में इसे साकार किया था।
ईश्वर की दयालुता का यह महान सन्देश जिसे प्रभु ने फाउस्टीना को दिया, उसे संत पिता जॉन पॉल द्वितीय ने, जो उन दिनों क्राकोव (पोलैंड) के महा धर्माध्यक्ष थे, स्वीकृति दी और ईश्वरीय दया की भक्ति को प्रोत्साहन दे कर आगे बढ़ाया। उन्ही संत पिता ने सिस्टर फाउस्टीना को सन 1993 में कलीसिया में धन्य घोषित किया और 30 अप्रैल 2000 को उसे संत की उपाधि से विभूषित किया।
माता कलीसिया 05 अक्टूबर को संत फाउस्टीना का पर्व मनाती है।

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