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सन्त फ्रान्सिस ज़ेवियर / (पर्व दिवस 03 दिसम्बर)
भारत और जापान के प्रेरित तथा सन्त पौलुस जैसे उत्साही एवं साहसी मिशनरी सन्त फ्रान्सिस ज़ेवियर का जन्म स्पेन देश में ज़ेवियर के किले में सन् 1502 ईस्वी में हुआ। बाल्यवस्था से ही उनकी बुद्धि अत्यन्त तीव्र थी। अपने ही देश में प्रारम्भिक अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् सन् 1525 में वे फ्रांस के सुप्रसिद्ध पेरिस विश्वविद्यालय में भर्ती हो गये। वहाँ उन्होंने बड़ी योग्यता के साथ दर्शन-शास्त्र में उच्च उपाधियाँ हासिल की।
युवक फ्रान्सिस के हृदय में यही तीव्र अभिलाषा थी कि दर्शन-शास्त्र में आचार्य का पद प्राप्त कर विश्व विख्यात बनें। किन्तु विश्वविद्यालय के जीवन के दौरान उनका सम्पर्क सन्त इग्नासियुस लोयोला के साथ हुआ जिन्होंने सब सांसारिक सुख एवं यश का परित्याग कर प्रभुवर ख्रीस्त के चरणों में अपना जीवन समर्पित कर दिया था। इग्नासियुस स्वयं भी वहाँ अध्ययन कर रहे थे। प्रभु प्रेम से प्रज्वलित इग्नासियुस के प्रभाव से फ्रान्सिस बच नहीं सके। बिना देरी वे दोनों बड़े घनिष्ठ मित्र बन गये। इग्नासियुस चाहते थे कि फ्रान्सिस को भी ख्रीस्त के चरणों में ले आएँ । अतः वे प्रभु येसु के इन शब्दों को बार-बार फ्रान्सिस के कानों में दोहराते थे- "मनुष्य को क्या लाभ, यदि वह सारा संसार कमा ले, किन्तु अपनी आत्मा को खो दे?” (मत्ती 16:26)
इस बात को बार-बार सुनते हुए फ्रान्सिस उस पर मनन करने लगे। धीरे- प्रभु की कृपा से उनका मन बदल गया और उन्होंने इग्नासियुस के समान धीरे सभी सांसारिक मोह छोड़ देने और प्रभुवर ख्रीस्त के लिए अपना जीवन समर्पित करने का दृढ़ संकल्प किया। उनके साथ अन्य पाँच साथी और जुड़ गये। उनके साथ मिलकर सन्त इग्नासियुस ने “येसु-समाज” नामक धार्मिक संस्था की स्थापना की। इस संस्था का लक्ष्य था-ख्रीस्त के वीर सैनिक बन कर संसार में चारों ओर उनके सुसमाचार का प्रचार करना तथा बालकों व युवाओं को ख्रीस्तीय शिक्षा दे कर प्रेम, न्याय एवं समानता पर आधारित समाज के निर्माण के लिए प्रशिक्षण देना। इस प्रकार सम्पूर्ण मानव समाज को ख्रीस्त के चरणों में लाना। इस लक्ष्य को ले कर फ्रान्सिस पुरोहित बने। सन् 1537 में रोम में उनका पुरोहिताभिषेक सम्पन्न हुआ। चालीस दिनों के कड़े उपवास और आध्यात्मिक साधना के पश्चात् ही उन्होंने अपना प्रथम ख्रीस्त याग अर्पित किया।
तत्पश्चात् फ्रान्सिस अपने समाज के उच्च अधिकारी एवं एवं अपने परम मित्र इग्नासियुस लोयोला के साथ रोम में रह कर उनके कार्य में सहायता करने लगे। इस बीच पोर्तुगल के राजा जॉन तृतीय ने सन्त इग्नासियुस से निवेदन किया कि वे भारत एवं पूर्वी देशों में सुसमाचार प्रचार के लिए येसु-समाजी मिशनरियों को भेजें। क्योंकि उन दिनों इन देशों में पुर्तगाल के उपनिवेश स्थापित हो चुके थे। इस कार्य के लिए राजा उन्हें यथासम्भव सहायता देने के लिए तैयार थे। सन्त इग्नासियुस ने इस कार्य के लिए फ्रान्सिस को सर्वाधिक योग्य मान कर उन्हें भारत जाने के लिए नियुक्त किया। अतः वे तुरन्त पोर्तुगल की राजधानी लिस्बन चले गये। वहाँ राजा से आवश्यक अनुमति-पत्र आदि प्राप्त किया। तब वे पुर्तगाली राजदूत एवं अन्य यात्रियों के साथ भारत आने के लिए सन् 1541 में जहाज द्वारा रवाना हुए। 13 महीनों की लम्बी एवं कष्टदायक यात्रा के बाद उनका जहाज भारत के पश्चिमी तट पर गोआ के बन्दरगाह में आ पहुँचा। मार्ग में अनेकों यात्री बीमार पड़ गये थे। फ्रान्सिस ने बड़े प्रेम से उन सबकी सेवा की और ईश-वचन सुना कर उन्हें सांत्वना दी।
शीघ्र ही फ्रान्सिस ने गोआ में अपना कार्य शुरू किया। सबसे पहले वहाँ की भाषा और रीति-रिवाज सीखे। तब लोगों को प्रवचन देना, रोगियों से मिलना और उनके लिए प्रार्थना करना आदि कार्य उन्होंने बड़े उत्साह के साथ किये। तब वहाँ से दक्षिण की ओर गये और समुद्री तट के मछुआरों के बीच दो वर्षों तक कार्य किया जिसमें उन्हें बड़ी सफलता मिली। सुसमाचार प्रचार का उनका तरीका बड़ा आकर्षक था। हाथ में एक छोटी घंटी लिये वे हर मुहल्ले में जाते और वहाँ घंटी बजाने लगते। इस पर अनेकों लोग विशेष कर, बच्चे और महिलाएँ जमा हो जाते थे। फ्रान्सिस उन्हें निकट के गिरजाघर में ले जाते और बड़े प्रेम और धैर्य के साथ सुसमाचार सुनाते और ख्रीस्तीय विश्वास की बातें समझाते थे। इस प्रकार वे वहाँ की जनजाति के हजारों लोगों को ख्रीस्तीय विश्वास में ले आये। तत्पश्चात् वहाँ से बिदा हो कर वे श्रीलंका गये और वहाँ सुसमाचार घोषणा का कार्य किया। कुछ समय बाद वे मलाका गये। वहाँ एक जापानी व्यक्ति उनके मित्र बन गये और उस मित्र के साथ वे जापान गये। किन्तु वहाँ के बुद्ध संन्यासियों के विरोध के कारण उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। तब वे पुर्तगाल के राजदूत के रूप में जापान के राजा से मिले। राजा ने उनका स्वागत किया और उन्हें समाचार प्रचार की अनुमति दे दी। प्रभु ने रोगियों की चंगाई और अन्य चमत्कारों द्वारा उनकी शिक्षा को प्रमाणित किया। इस प्रकार उन्हें अपने कार्य में काफी सफलता प्राप्त हुई और हजारों लोगों ने ख्रीस्तीय विश्वास को अपनाया। तत्पश्चात् वे अपने मित्र के साथ गोआ लौट आये। गोआ के विश्वासीगण अपने प्रिय गुरू को वापस अपने बीच पाकर बहुत खुश हुए और उनसे निवेदन किया कि वे वहीं कुछ समय विश्राम करें।
किन्तु ख्रीस्त के प्रेम से प्रज्वलित फ्रान्सिस को किसी प्रकार के विश्राम की चिन्ता नहीं थी। वे सुदूर चीन देश जाने के लिए तैयार हुए। कुछ ही दिनों बाद वे अपने कुछ साथियों को ले कर चीन के लिए रवाना हुए। किन्तु मार्ग में वे सख्त बीमार पड़ गये और हाँगकाँग से करीब दो सौ मील दूर सेंचियन द्वीप में 3 दिसम्बर 1552 को उनका देहान्त हो गया। वे केवल 46 वर्ष के थे। फ्रान्सिस का जीवन एक जलती हुई मोमबत्ती के समान था जो ख्रीस्त की ज्योति को चारों ओर बिखेरता था। वह प्रकाश अचानक बुझ गया था। फ्रान्सिस के साथियों ने बड़े दुःख के साथ उनके पार्थिव शरीर को उस द्वीप की रेत में दफना दिया। करीब दस सप्ताह बाद वह जहाज अपनी वापसी यात्रा में उस द्वीप के किनारे रूका। फ्रान्सिस के साथी उनके अवशेष को गोआ ले जाना चाहते थे। अतः उन्होंने कब्र की रेत हटाई। तब वे यह देख कर आश्चर्य-चकित रह गये कि उनका शरीर बिल्कुल ताजा था। किन्तु लम्बी यात्रा की परेशानियों को देखते हुए उन्हें फिर मलाका में दफनाया गया। एक वर्ष बाद गोआ के विश्वासियों के आग्रह पर मलाका में फिर उनकी कब्र खोली गयी। उस समय भी वह पावन शरीर बिल्कुल ताजा था। उसे बड़े सम्मानपूर्वक गोआ लाया गया। वह आज भी गोआ की राजधानी पंजिम के महागिरजाघर में सुरक्षित रखा हुआ है।
सन्त फ्रान्सिस ने केवल दस वर्ष मिशनरी के रूप में कार्य किया, फिर भी उन्होंने करीब पचास राज्यों की यात्रा की और लाखों को ख्रीस्त के शिष्य बनाये और उन्हें अपने विश्वास में सुदृढ़ किया। सन् 1622 में सन्त पिता ग्रेगरी 15वें ने फ्रान्सिस को सन्त घोषित किया और भारत एवं जापान के संरक्षक ठहराया। कलीसिया में 3 दिसम्बर को उनका पर्व मनाया जाता है।
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