पोप जॉन 23वें और जॉन पॉल द्वितीय: लोगों के सच्चे चरवाहे

10 साल पहले, आज ही के दिन पोप फ्राँसिस ने संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्राँगण में समारोही ख्रीस्तयाग के दौरान पोप जॉन 23वें और पोप जॉन पॉल द्वितीय को संत घोषित किया था। ऐतिहासिक उथल-पुथल के समय में, प्रिय संत पापाओं ने उस आशा और खुशी का साक्ष्य दिया जो येसु के साथ मुलाकात से आती है।

संत कौन हैं? सबसे पहले, वे "सुपरमैन" नहीं हैं, जैसा कि पोप फ्राँसिस हमें अक्सर याद दिलाते हैं। फिर भी कुछ लोगों के लिए (गैर ख्रीस्तीय) पवित्रता असाधारण चीज का पर्याय हो सकता है। यदि आपका नाम कैलेंडर पर है - कोई मजाकिया ढंग से कहे - यह निश्चित रूप से एक असाधारण तरीके से जीए गए जीवन के कारण है।

हालाँकि, पोप फ्राँसिस ने इस बात पर जोर दिया है कि सभी बपतिस्मा लेनेवालों को पवित्रता के लिए बुलाया जाता है, "अगल-बगल के संत" होने के लिए, जिनकी संख्या उनसे कहीं अधिक है जो कलीसिया के कैलेंडर में शामिल हैं। पोप फ्राँसिस ने गौदाते एत एसुलताते में लिखा है, पवित्रता को "ईश्वर के लोगों के धैर्य में देखा जाता है: उन माता-पिताओं में जो अपने बच्चों का बेहद प्यार से पालन-पोषण करते हैं, उन पुरुषों और महिलाओं में जो अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, बीमार और बुजुर्ग धर्मसमाजियों में जो अपनी मुस्कान कभी नहीं खोते।”

जॉन 23वें और जॉन पॉल द्वितीय ने ईश्वर के लोगों की इस पवित्रता में पूरे दिल से विश्वास किया। वे धैर्यशील व्यक्ति थे, जानते थे कि अपने आपको पिता को कैसे सौंपना है और खुद को उनके द्वारा निर्देशित होने दिए। यही कारण हैं कि दस साल पहले 27 अप्रैल को विश्वासियों से खचाखच भरे संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्राँगण में उन्हें संत घोषित किया गया।

अंजेलो रेकोली और करोल वोतिला ने क्रमशः वेनिस और क्राकॉव में और बाद में रोम के परमाध्यक्ष के रूप में ऐसे चरवाहे रहे, जिन्हें अपनी भेड़ों की गंध मालूम थी। वे मसीह के घावों को छूने के डर के बिना लोगों के बीच रहते थे, उन बहनों और भाइयों के कष्टों में दिखाई देनेवाले घाव जो उस शरीर यानी कलीसिया का निर्माण करते हैं।

द्वितीय वाटिकन महासभा - जॉन 23वें के विनम्र और साहसी दिल से उत्पन्न हुई और जिनके सबसे उत्साही समर्थकों में से एक थे युवा बिशप करोल वैतिला - ने येसु ख्रीस्त के शरीर की छवि को कलीसिया के जीवन के केंद्र में वापस रखा और प्रथम ख्रीस्तीय समुदाय के अनुभव से जोड़ा।

हम भारी उथल-पुथल के समय में जी रहे हैं: हाल के वर्षों में, पहले महामारी, फिर यूक्रेन में युद्ध, और अब मध्य पूर्व में नया संघर्ष एक साथ आ गया है, जो दर्द, भय और अशांति की भावना पैदा कर रहा है, फिर भी एक उम्मीद है क्योंकि वैश्वीकरण अब समग्र रूप से मानवता का एक रचनात्मक आयाम प्रतीत होता है।

दोनों महान संत पापाओं के समय में भी चीजें कम जटिल नहीं थीं। बुजूर्ग और बीमार पोप जॉन 23वें को क्यूबा मिसाईल संकट का सामना करना पड़ा। पोप जॉन पौल द्वितीय ने एक पुरोहित के रूप में अपने देश पोलैंड में नाजी का भयांकर आतंक देखा, धर्माध्यक्ष के रूप में दमघोंटू कम्युनिस्ट तानाशाही और पोप के रूप में शीत युद्ध के दो गुटों के बीच टकराव के कारण सोवियत संघ का नाटकीय विघटन एवं "इतिहास के अंत" का भ्रम।   

20वीं सदी के इन दो पोपों ने अपने समय की त्रासदियों का जवाब इस्तीफे और निराशावाद के साथ नहीं दिया। वे "विनाश के पैगम्बरों" की सूची में शामिल नहीं हुए, जो चीजों को बेहतर बनाने में मदद करने के लिए अपनी आस्तीन चढ़ाने के बजाय, जो गलत है उसके लिए शिकायत करना पसंद करते थे।

जैसा कि पोप फ्राँसिस ने जॉन 23वें और जॉन पॉल द्वितीय के संत घोषणा समारोह के प्रवचन में जोर दिया था, उनका "विश्वास शक्तिशाली था – मानव के मुक्तिदाता और इतिहास के प्रभु में विश्वास", एक ऐसा विश्वास जो खुशी और आशा में प्रकट होता है और केवल वे ही इसकी गवाही दे सकते हैं जिन्होंने अपने जीवन में ख्रीस्त से मुलाकात की है।

पोप ने उपदेश में आगे कहा था कि इन दोनों संत पापाओं की आशा और आनन्द का कारण यही था जिन्होंने उसे पुनर्जीवित ख्रीस्त से प्राप्त किया था। इसके बदले में उन्होंने प्रचूर मात्रा में ईश प्रजा को अर्पित किया। वर्षों के बीतने के साथ इन दोनों संतों के प्रति हमारी कृतज्ञता कम नहीं होती, बल्कि इस विश्वास में बढ़ जाती है कि अब वे स्वर्ग से कलीसिया के लिए, ईश प्रजा के लिए प्रार्थना सकते हैं, जिनकी सेवा उन्होंने इस दुनिया में प्रेम एवं आत्मत्याग के साथ की है।